CHAND SHUBHAAT AUR NAZRIYAAT HINDUSTAAN KE MAUJOODAH HALAAT KE TANAZOOR ME.
चंद शुब्हात व नज़रियात हिन्दुस्तान के मौजूदा हालात के तनाज़ुर मे
कुछ दिनों से भारतीय जनता जिस तरह बेचैनी का शिकार है उसकी मिसाल शायद अंग्रेज़ी दौर में ही मिल पाएगी। उससे पहले मुस्लिम हुक्मरानों ने शायद इस्लाम के लिए कुछ किया हो या न किया हो, मगर यहाँ के तमाम तबक़ो के लिए अदल-ओ-इंसाफ़ से लेकर हुक़ूक़-ओ-मुरा’आत की मुकम्मल पासदारी ज़रूर की है। यही वजह है कि लगभग आठ सौ साल मुसलमानों की हुकूमत रहते हुए भी हमारी तादाद चौदह-पंद्रह प्रतिशत है, जबकि बीजेपी सत्ता संभालने के बाद से ही आरएसएस के साथ मिलकर अपनी तादाद की बढ़ोतरी और मुसलमानों की तादाद कम करने के मंसूबे पर अमल कर रही है। हम मुसलमानों के लिए यह इश्यू फ़िक्र मंदी का इतना बाइस नहीं है जितना कि हमें मुत्तहिद होना और शिर्क-ओ-बिदअत से ताइब होकर ख़ालिस दीन-ए-हनीफ़ पर जमा होना है।
इस मज़मून के ज़रिए मुसलमानों के चंद नज़रियात और शुब्हात की हक़ीक़त टटोलना चाहता हूँ, इस वजह से हिंदुस्तान के मुख़्तलिफ़ सूरते हाल या मौजूदा सूरते हाल पर हिंदुओं के नज़रियात से सर्फ़-ए-नज़र करता हूँ।
सबसे पहले इस्लामी नुक्ता-ए-नज़र से जम्हूरी मुल्क में एहतिजाज की शरई हैसियत पर मुसलमानों के दरमियाँन
जवाज़-ओ-अदम जवाज़ पर अपनी बात रखना चाहता हूँ कि बिला शक मज़ाहिरे हराम हैं, इस बात की वज़ाहत के साथ कि जो उलमा क़ुरआन-ओ-हदीस से इसके जवाद की दलील पेश करते हैं उनका इस्तिदलाल ग़लत है। अब मैं ख़ालिस सियासी पस-मंज़र में बात कर रहा हूँ और सियासत में मुफ़ीद मस्लहत मलहूज़ रख सकते हैं। हम सभी जानते हैं कि जम्हूरियत में अकसरियत की राय से ज़ालिमाना क़ानून भी पास किया जा सकता है, इसकी रोकथाम के लिए जम्हूरी दस्तूर में ही पुर-अमन मुज़ाहिरे को क़ानूनी जवाज़ हासिल है। मुल्क में जब सीएबी (नागरिकता संशोधन विधेयक) लाने की बात हुई तो शुरू में अकसर लोगों की राय थी कि यह ऐवान-ए-हुकूमत (Government House) से पास नहीं हो पाएगी क्योंकि यह तमाम हिंदुस्तानियों के लिए नुक़सान देह है, मगर फिर भी दोनों ऐवान (पार्लियामेंट) से पास होकर एक्ट की शक्ल इख़्तियार कर ली। हिंद में ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने का एक ज़रिया कोर्ट में मुक़दमा दर्ज करना भी है, मगर मौजूदा कोर्ट, वकील, पुलिस, रिपोर्टर सब भाजपा की मुठ्ठी में हैं। हमने बाबरी मस्जिद का फ़ैसला भी देखा जो सुप्रीम कोर्ट से आया, इसके लिए हमने मुज़ाहिरे नहीं किए थे, कोर्ट पर इंहिसार किए थे, फ़ैसले पर नज़र सानी के लिए दोबारा कोर्ट में अर्ज़ी पेश की गई जिसे यक लख़्त ख़ारिज कर दी गई। ऐसी सूरते हाल में ज़ालिमाना कानून सीएबी (Citizenship Amendment Bill) की रोकथाम के लिए पुर-अमन मुज़ाहिरो के अलावा कोई रास्ता नज़र नहीं आता है। मैं कहना चाहता हूँ कि ये मुज़ाहिरे
मौजूदा सूरते हाल में जाइज़ ही नहीं हम सब की अव्वलीन ज़रूरत हैं, बरवक्त इन्हें अपने तमाम कामकाज पर तरजीह देना चाहिए। क्या आपको मालूम नहीं है कि अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ादी दिलाने में उलमा सर-ए-फ़िहरिस्त रहे हैं और उन्होंने मुल्क भर में मुज़ाहिरे किए, इनमें से किसी ने भी इख़्तिलाफ़ नहीं किया सिवाए अंग्रेज़ी ग़ुलाम और मुनाफ़िक़ के। इसमें मज़ीद एक बात का इज़ाफ़ा करता चलूं कि जो लोग इस बिल की हिमायत में हैं उनके साथ हमारा रवैया कैसा होना चाहिए, इस बाबत मेरा ये कहना है कि हमें उनसे त’अर्रुज़ करने की ज़रूरत नहीं है, मुल्क की अकसरियत मुख़ालिफ़त में खड़ी है, हम अकसरियत के साथ मिलकर अदलिया और हुकूमत पर दबाव बना सकते हैं। रही बात औरतों का मुज़ाहिरे में हिस्सा लेना जबकि उन्हें अपने घरों में इस्तिक़रार का हुक्म दिया गया है, तो मैं समझता हूँ यहाँ औरत-मर्द सबकी जान-ओ-माल को ख़तरा है, अगर औरत का इसमें हिस्सा लेना मुफ़ीद है तो वह भी हिस्सा ले सकती है, जैसे कि उसे भी अपने जान-ओ-माल के लिए दिफ़ा का हक़ है। ताहम शरई हुदूद मलहूज़ रखना चाहिए, मसलन पर्दा और इख़्तिलात (मेल जोल) के मुताल्लिक़।
अब मैं बात करना चाहता हूँ एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) की, कई उलमाओं ने बयान दिया है कि एनआरसी क़ुरआन से साबित है, मैं उन उलमाओं से ब-एहतराम गुज़ारिश करना चाहता हूँ कि आप अपने इस मौक़िफ़ पर नज़र-ए-सानी की ज़हमत फ़रमाएँ। एक तरफ़ आप ही कहते हैं बल्कि पूरा
मुल्क कह रहा है कि एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि पूरे हिंदुस्तानियों के ख़िलाफ़ है फिर तज़ाद बयान क्यों? कहीं आपकी ये बात कट्टर हिंदू पुष्पेंद्र को न मालूम हो जाए तो जिस तरह पहले कहता रहा है कि मोदी को अल्लाह ने भेजा है, अब ये भी कहेगा कि तुम जब क़बूल करते हो एनआरसी क़ुरआन से साबित है फिर उसकी मुख़ालफ़त क्यों करते हो, चुपचाप मुल्क से निकल जाओ। दिक़्क़त नज़र से मसले को समझने की ज़रूरत है कि क़ुरआन में क्या कहा गया है, किस पस-ए-मंज़र में कहा गया है और कौन मुख़ातिब हैं?
सूरह इब्राहीम में अल्लाह ने ज़िक्र किया है कि काफ़िरों ने अपने रसूलों से कहा कि हम तुम्हें मुल्क-बदर कर देंगे या फिर हमारा दीन क़बूल कर लो और दूसरे मक़ामात पर बाज़ अक़्वाम का भी ज़िक्र है जिन्होंने अपनी क़ौम के नबी और उन पर ईमान लाने वालों को मुल्क-बदर करने की धमकी दी, मसलन क़ौम-ए-शुऐब, क़ौम-ए-लूत और मुशरिकीन-ए-मक्का। मेरा सवाल है कि क्या एनआरसी का यही पस-ए-मंज़र और मतलब है जो मतलब मोजूद-ए-आयत में है? क्या हिंदुस्तान के काफ़िरों ने ये हुक्मनामा जारी किया है कि तुम मुसलमान हिंदुस्तान से निकल जाओ या हिंदू मज़हब क़बूल कर लो? बिल्कुल ऐसी बात नहीं है।
पहले ये तो देखें कि हिंदुस्तान में किस क़िस्म के मुसलमानों की अक़सरियत है, दिल्ली में सूफ़ी कांफ्रेंस करने वाले मोदी के साथ
मिलकर कांफ्रेंस करते हैं, क्या ये लोग आयत के मिस्दाक़ हो सकते हैं? दूसरी बात ये है कि लफ़्ज़ एनआरसी (National Register of Citizens) मुल्क के तमाम बाशिंदों को शामिल है, इससे सिर्फ़ मुसलमान मुराद नहीं है, इस वजह से एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) की दलील क़ुरआन से निकालना न सिर्फ़ इज्तिहादी ख़ता है बल्कि दुश्मन के लिए प्रोपेगेंडा का रास्ता भी हमवार करना है।
इससे मुताल्लिक़ आख़िरी बात कहना चाहता हूँ कि भारत से मुसलमानों को निकाल दिया जाए या उन सबको क़त्ल कर दिया जाए, इस बात से हक़ीक़ी मुसलमान कभी नहीं ख़ौफ़ खाएगा क्योंकि इन दोनों सूरतों में अल्लाह की तरफ़ से हमारे लिए इनाम है। हक़ीक़ी मोमिन को उसकी ज़मीन से निकाला जाए तो अल्लाह उन्हें उनकी सरज़मीन में वापस बुलाता है जैसा कि नबी ﷺ और असहाब-ए-रसूल के साथ हुआ और अगर क़त्ल कर दिया जाए तो वह इस्लाम के लिए क़त्ल होने पर शहीद कहलाएगा लेकिन याद रहे शिर्क करने वाला मक्तूल शहीद नहीं होगा, इस लिए शुरू में कहा हूँ कि हिंदुत्व का मुस्लिम मुख़ालिफ़ एजेंडा उतना फ़िक्रमंदी का बाइस नहीं है जितना कि हम मुसलमानों का अक़ीदा-ए-तौहीद पर एक जगह जमा होना है।
एक मसला मेरा साथ ये पेश आया कि एक साहब ने मेरे ग्रुप इस्लामियात में लिखा कि ये ख़ालिस इस्लामी ग्रुप है फिर भी हिंदुस्तानी मसाइल पर कोई बात-चीत नहीं है, उलमा ख़ामोश हैं,
क्या मुसलमान मर जाएँगे तो आरएसएस के गुंडों को मसाइल बताए जाएँगे?
गरचे जुमलों का इंतिख़ाब सही नहीं है, ताहम वो मौजूदा सूरत-ए-हाल पर उलमा की ख़ामोशी से शदीद नालाँ (मजबूर) नज़र आते हैं। मैंने उन्हें जवाब दिया कि यहां मसले मसाइल की ज़रूरत नहीं बल्कि ज़ालिमाना क़ानून (सीएबी, एनआरसी, एनपीआर) के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने की ज़रूरत है और ये बात भी सही है कि मुल्क के मुस्लिम तबकात के दीनी रहनुमा, उलमा और तलबा पर जुमूद (काहिली) तारी है, कुछ है तो बस लफ्फ़ाज़ी, लच्छेदार तक़रीर या सेमिनार जबकि अभी वतन को हमारे जिस्म ओ जान की ज़रूरत है जैसे अंग्रेज़ों से आज़ादी के लिए हमारे आबा ओ अजदाद ने क़ुर्बानियाँ दीं।
हिंदुस्तानी सूरत-ए-हाल के तनाज़ुर में सोशल मीडिया पर सरहद पार से कुछ हवाएँ ग़लत सिम्त चलती नज़र आ रही हैं, ये हवाई उड़ाने वाले कुछ ख़ुद को मुवह्हिद कहने वाले भी हैं। बहुत सारे सरहदी ग़ुंचे इस बात पर खिल रहे हैं कि क़ाइद-ए-आ’ज़म रहमतुल्लाह का दो क़ौमी नज़रिया सच होता दिखाई दे रहा है। मैं दूसरों पर कम, मुवह्हिद कहने वालों पर ज़्यादा हैरान-ओ-शशदर हूँ कि किस तरह एक ग़ाली शिया को उसके नाम से नहीं बल्कि क़ाइद-ए-आ’ज़म से पुकारा जाता है और रहमतुल्लाह के ज़रिये दुआ दी जाती है। दूसरी तरफ़ हिंद के आलिम-ए-दीन, मुफ़स्सिर-ए-क़ुरआन मौलाना अबुलकलाम आज़ाद रहमतुल्लाह
का नज़रिया अदम तक़सीम का है। एक मुवह्हिद किस को तरजीह देगा?
सरहदी भाई हमें क़िस्म क़िस्म के ताने दे रहे हैं, उनका ज़िक्र फ़ुज़ूल है, असल मसले की वज़ाहत काफ़ी है। एक मसला हिंदुस्तान से मुसलमानों की मोहब्बत पर सवाल उठाना और दूसरा मसला हिंदुओं का मुल्क कहकर हमें यहाँ से हिजरत कर जाने का मशवरा देना है। मुल्क से मोहब्बत पर सवाल उठाना जहालत और ना-वाक़िफ़ियत की दलील है, वतन से मोहब्बत और उसके इज़हार में कतई कोई हर्ज नहीं है और हिजरत करने का मशवरा देने वालों को पहले अपने अहवाल दुरुस्त करना चाहिए, हमारे लिए अभी हिजरत का वक़्त नहीं आया है। जब इस्लामी अहकाम पर अमल करने से हमें रोका जाएगा तब ये मसला आएगा क़त’-ए-नज़र इस से कि सरहद पार के वज़ीर-ए-आज़म ने मुसलमान मुहाजिर को क़बूल करने से इंकार कर दिया है। या-लिल-‘अजब
सब को मालूम है कि हिंद के हालात पाक से मुख़्तलिफ हैं फिर भी पाक में बुत परस्त आराम से हैं, उनसे कोई बैर नहीं, क़ादियानियों को एक बड़े शहर रब्वा में पनाह दी गई है जहां उनको अपनी दावत की नश्र-ओ-इशा’अत के लिए अख़बारात व चैनल से लेकर हर क़िस्म का प्लेटफार्म मुहैय्या है, सालाना इजलास इस क़दर अहम होता है कि पूरी दुनिया से क़ादियानी इसमें शरीक होते हैं और फिर ईसाई व शिया हुकूमत के बड़े-बड़े
ओहदों पर फ़ाइज़ हैं जो न सिर्फ़ पाक के लिए ख़तरनाक हैं बल्कि दीन-ए-इस्लाम को भी नुक्सान पहुंचा रहे हैं, यूट्यूब पर सैकड़ों वीडियोज़ मिल जाएंगी जिनमें शिया अल्लाह, रसूल, उम्महातुल मोमिनीन, सहाबा और इस्लाम का मजाक़ उड़ाते नज़र आते हैं। आख़िर इनको मुस्लिम मुल्क में इस क़दर छूट कैसे?
सरहद पार से एक और साहब मिले जो मेरे मज़मून में वारिद एक मिसरा पर एतिराज़ करने लगे, मशहूर शेर का एक मिसरा है “हिंदी हैं वतन है हिंदुस्तान हमारा”, इस पर उन्होंने मुझे वुस’अत-नज़री (दूरदर्शिता) पैदा करने की नसीहत की और कुछ एतराज़ात किए मगर लाजवाब ठहरे। इस मिसरा पर उन्होंने कहा “मुस्लिम हैं वतन है सारा जहां हमारा”। मैंने उनसे बा-एहतिराम अर्ज़ किया कि अगर आपसे कोई पूछे किस मुल्क के बाशिंदे हैं तो क्या जवाब होगा? साहब की तरफ़ से अभी तक कोई जवाब नहीं आया।
ख़ैर, मैंने इख़्तिसार से लिखने को सोचा था मगर मज़मून कुछ तवील हो गया। इस मज़मून से इख़्तिलाफ़ किया जा सकता है मगर सलीक़ा इख़्तिलाफ़ मल्हूज़-ए-ख़ातिर रहना चाहिए।