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JUMA’ KE DIN AURAT KAISE FAIDA UTHA SAKTI HAI?

जुम्मा के दिन औरते कैसे फ़ायदा उठा सकती हैं? 

 

जुम्मा का दिन सभी दिनों में सबसे बेहतर दिन है, यह दिन जहाँ मर्द के लिए बेहतर है वहीं औरतों के लिए भी बेहतर है मगर अफ़सोस हमारे यहाँ जुम्मा के मुताल्लिक़ औरतों को तारीकी में रखा गया है। उन्हें यही तालीम दी जाती है कि जुम्मा का दिन सिर्फ़ मर्द के लिए है औरतों के लिए कुछ नहीं। इस वजह से औरतें जहाँ आम दिनों में ग़ाफ़िल होती हैं सय्यद-उल-अय्यम में भी ग़फ़लत की रिदा ओढ़े रहती हैं। मैं आपकी ख़िदमत में अहादीस सहीहा की रोशनी में मुख़्तसरन बयान करता हूँ कि ख़ातून-ए-इस्लाम किस तरह जुम्मा के बाबरकत दिन से फ़ायदा उठा सकती है।

 

(1) ग़ुस्ल जुम्मा:

जुम्मा के दिन ग़ुस्ल करना वाजिब नहीं बल्कि मुस्तहब है, यही बात दुरुस्त है।

और वह हदीस जिसमें जुम्मा का ग़ुस्ल वाजिब बताया गया है जो हज़रत अबू सईद ख़ुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:

 

الغُسْلُ يومَ الجمعةِ ، واجِبٌ على كلِّ مُحْتَلِمٍ(صحيح مسلم : 846)

 

तर्जुमा: जुम्मा के दिन ग़ुस्ल करना हर बालिग़ पर वाजिब है।

इसके मुताल्लिक़ जम्हूर उलमा ने कहा है कि इससे सुन्नत की ता’कीद मुराद है।

 

औरत अगर जुम्मा की नमाज़ में हाज़िर होती है तो उसके लिए भी ग़ुस्ल करना मसनून है जैसा कि एक रिवायत में वारिद है।

 

من أتى الجمعةَ منَ الرِّجالِ والنِّساءِ فليغتسِلْ , ومن لم يأتِها فليسَ عليهِ غُسلٌ منَ الرِّجالِ والنِّساءِ(ابن خزيمة و ابن حبان)

 

तर्जुमा: मर्द और औरत में से जो जुम्मा की नमाज़ के लिए आए वह ग़ुस्ल करे, और जो जुम्मा की नमाज़ न पढ़े उस मर्द और औरत पे ग़ुस्ल नहीं है।

 

इमाम नववीؒ  ने अल-ख़लासाह और अल-मजमू दोनों के अंदर इन अल्फाज़ के साथ इसकी सनद को सहीह क़रार दिया है। (अल-ख़लासाह 2/774 व अल-मजमू 4/534)

हाफ़िज़ इब्न हजर ने कहा “रिज़ालह सिख़ात”। 

(फ़तह अल-बारी लि इब्न हजर 2/417)

 

(2) जुम्मा के दिन दरूद पढ़ना:

 

إنَّ من أفضلِ أيامِكم يومَ الجمعةِ ، فيه خُلِقَ آدمُ ، و فيه قُبِضَ ، و فيه النفخةُ ، و فيه الصعقةُ ، فأكثروا عليَّ من الصلاةِ فيه ، فإنَّ صلاتَكم معروضةٌ عليَّ ، إنَّ اللهَ حرَّم على الأرضِ أن تأكلَ أجسادَ الأنبياءِ.(صحيح الجامع للالباني: 2212)

 

तर्जुमा: रसूल अल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया: जुम्मा का दिन तुम्हारे तमाम दिनों में सबसे अफ़ज़ल दिन है। इस दिन आदम अलैहिस्सलाम पैदा किए गए, इसी दिन वफ़ात पाए, इसी दिन सूर फूंका जाएगा और इसी दिन बेहोशी तारी होगी। पस इस दिन तुम मुझ पर बकसरत दरूद भेजो, इस लिए कि तुम्हारा 

 

दरूद मुझ पर पेश किया जाता है। अल्लाह तआला ने अंबिया के जिस्मों को मिट्टी पर हराम कर दिया है।

जुम्मा के दिन नबी ﷺ पर दरूद पढ़ने वाली यह हदीस मर्द औरत दोनों को शामिल है, इस लिए औरत भी जुम्मा के दिन दरूद का ख़ास एहतिमाम करे।

 

(3) सूरह क़हफ़ की तिलावत करना:

ख़वातीन को जुम्मा के दिन सूरह क़हफ़ की तिलावत करनी चाहिए। नबी ﷺ का आम फ़रमान है जिसमें मर्द के साथ औरत भी शामिल है।

 

من قرأ سورةَ الكهفِ في يومِ الجمعةِ ، أضاء له من النورِ ما بين الجمُعتَينِ(صحيح الجامع للالبانی: 6470)

 

तर्जुमा: हज़रत अबू सईद ख़ुदरी से मरवी है, नबी करीम ﷺ ने इरशाद फ़रमाया: जिस ने जुम्मा के दिन सूरह क़हफ़ पढ़ी तो इस जुम्मा से अगले जुम्मा तक उसके लिए नूर को रोशन कर दिया जाता है।

 

(4) औरतों के लिए नमाज़-ए-जुम्मा:

इस पर बात सब का इत्तेफ़ाक़ है कि जुम्मा की नमाज़ सिर्फ़ मर्दों पर फ़र्ज़ है, औरतों पर फ़र्ज़ नहीं है। इसकी दलील:

 

الجمعةُ حقٌّ واجبٌ على كلِّ مسلمٍ في جماعةٍ ؛ إلا أربعةً : عبدًا مملوكاً ، أو امرأةً ، أو صبيًّا ، أو مريضًا(صحيح الجامع للالباني : 3111)

 

तर्जुमा: जुम्मा की नमाज़ हर मुसलमान पर जमात के साथ 

 

वाजिब है सिवाए चार लोगों के, ग़ुलाम, औरत, बच्चा और बीमार।

लेकिन यहाँ यह बात भी जान लेनी चाहिए कि अगर औरत जुम्मा की नमाज़ में शामिल हो जाती है तो उसकी नमाज़-ए-जुम्मा सही है और उससे ज़ोहर की नमाज़ साकित हो जाएगी। नबी ﷺ के ज़माने में सहाबियात जुम्मा में शरीक होती थीं।

 

دلیل : عن أم هشام بنت حارثة بن النعمان: وما أخذت (ق والقرآن المجيد) إلا عن لسان رسول الله صلى الله عليه وسلم يقرؤها كل يوم جمعة على المنبر إذا خطب الناس.(صحیح مسلم : 873)

 

तर्जुमा: सय्यदा उम्मे हिशाम बिन्त हारिसा बिन नौमान रज़ियल्लाहु अन्हा बयान करती हैं कि मैंने सूरह क़हफ़ रसूल करीम ﷺ की ज़बान मुबारक से (सुनकर) ही तो याद की थी, आप इसे हर जुम्मा के दिन मिंबर पर लोगों को ख़ुतबा देते हुए तिलावत फ़रमाया करते थे।

इस हदीस में दलील है कि सहाबिया उम्मे हिशाम रज़ियल्लाहु अन्हा जुम्मा की नमाज़ में शरीक होती थीं, जुम्मा में शिरकत की वजह से ख़ुतबा नबवी में पढ़ी जाने वाली सूरह कहफ़ उन्हें हिफ़्ज़ हो गई।

यहाँ एक और बात याद रखनी चाहिए कि औरतों का इकट्ठा होकर अलग से औरतों के लिए जुम्मा की नमाज़ क़ाइम करने की दलील नहीं मिलती।

 

(5) दुआ की क़ुबूलियत:

 

जुम्मा के दिन एक घड़ी ऐसी है जिसमें दुआ की जाए तो क़ुबूल की जाती है, इसलिए औरत को जुम्मा की इस घड़ी में दुआ करनी चाहिए।

 

أنَّ رسولَ اللهِ صلَّى اللهُ عليه وسلَّم ذكَر يومَ الجمُعةِ، فقال : فيه ساعةٌ، لا يُوافِقُها عبدٌ مسلمٌ، وهو قائمٌ يُصلِّي، يَسأَلُ اللهَ تعالى شيئًا، إلا أعطاه إياه . وأشار بيدِه يُقَلِّلُها .(صحيح البخاري:935)

 

तर्जुमा: नबी ﷺ ने जुम्मा के दिन का ज़िक्र किया और फ़रमाया: इसमें एक ऐसी घड़ी है जिसमें कोई मुसलमान बंदा नमाज़ की हालत में अल्लाह तआला से जो कुछ भी माँगता है, तो अल्लाह तआला उसे ज़रूर इनायत करता है। और आपने ﷺ ने अपने हाथों से उस वक़्त के थोड़े होने का इशारा किया।

क़ुबूलियत की यह घड़ी कौन सी है, इसमें इख़्तिलाफ़ है, दो क़ौल ज़्यादा मशहूर हैं।

 

जुम्मा की अज़ान से लेकर नमाज़ के पूरा होने तक है।

असर के बाद से लेकर सूरज के ग़ुरूब होने तक है।

 

वैसे उलमा का ज़्यादा रुख़ दूसरे क़ौल की तरफ़ है, अगर जुम्मा के वक़्त भी दुआ कर ली जाए तो ज़्यादा मुनासिब है जैसा कि आलिम इब्नुल क़य्यमؒ  ने ज़िक्र किया है।

 

(6) जुम्मा के दिन हसन-ए-ख़ातिमा:

जैसा कि मैंने ऊपरी सुतूर में बताया है कि अक्सर औरतें 

 

जानकारी न होने के कारण जुम्मा के दिन भी ख़ैर के कामों से दूर रहती हैं जबकि आज का दिन अफ़ज़ल है, इस दिन नेकी करनी चाहिए और गुनाह से बचना चाहिए। जुम्मा के दिन वफ़ात पाना हसन-ए-ख़ातिमा की निशानी है।

अब्दुल्लाह बिन उमर अमर रज़ियल्लाहु अन्हु से मरवी है, रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:

 

ما مِن مسلمٍ يموتُ يومَ الجمعةِ أو ليلةَ الجمعةِ إلَّا وقاهُ اللَّهُ فِتنةَ القبرِ(صحیح الترمذٰی: 1074)

 

तर्जुमा: जो कोई मुसलमान जुम्मा की रात या दिन में वफ़ात पाता है, अल्लाह तआला उसे अज़ाब-ए-क़ब्र से बचाता है।

अंदाज़ा कीजिए कि अगर कोई औरत जुम्मा के दिन भी गुनाह के काम में मुलव्विस है तो क्या उसे यह फ़ज़ीलत मिलेगी और इसका हसन-ए-ख़ातिमा माना जाएगा?

 

अल्लाह तआला हमें अच्छे आमाल की तौफ़ीक़ दे। आमीन या रब।



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