JUM’A KE DIN UZAR KI WAJAH SE NAMAAZ-E-JUM’A NA PADH SAKE TO KYA KARE?
जुम्माआ के दिन उज़्र की वजह से नमाज़-ए-जुम’आ ना पढ़ सके तो क्या करें?
तहरीर: शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह
हिंदी मुतर्जिम: हसन फ़ुज़ैल
जुम’आ बहुत ही अहम तरीन दिन है, बड़ी अहमियत और फ़ज़ीलत का हामिल है, लेकिन उस दिन कभी ऐसा उज़्र (मजबूरी) भी दरपेश हो सकता है जिसकी वजह से कभी हम इन्फिरादी तौर पर तो कभी इज्तिमाई तौर पर नमाज़-ए-जुम’आ अदा नहीं कर सकते हैं। मसलन, शदीद बीमार हो गए, मस्जिद में हाज़िर नहीं हो सकते हैं, या सफ़र दरपेश हो गया, या मुसलाधार बारिश होने लगी और घर से निकलना दुश्वार हो जाए, तो ऐसी सूरत में शरियत हमें ज़ुह्र अदा करने की रुख़सत देती है। सुन्नत में इसकी मिसाल मिलती है कि बारिश और कीचड़ की वजह से लोगों को अपने घरों में ही नमाज़ अदा करने का हुक्म दिया गया और हमें यह भी मालूम है कि घर में जुम’आ की नमाज़ क़ायम नहीं की जाती, बल्कि ज़ुह्र की नमाज़ ही अदा की जाती है। सहीह बुख़ारी की मुंदरिजा-ज़ेल रिवायत देखें। इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है:
حَدَّثَنَا عَبْدُ اللَّهِ بْنُ عَبْدِ الْوَهَّابِ ، قَالَ : حَدَّثَنَا حَمَّادُ بْنُ زَيْدٍ ، قَالَ : حَدَّثَنَا عَبْدُ الْحَمِيدِ صَاحِبُ الزِّيَادِيِّ ، قَالَ : سَمِعْتُ عَبْدَ اللَّهِ بْنَ الْحَارِثِ ، قَالَ : خَطَبَنَا ابْنُ عَبَّاسٍ فِي يَوْمٍ ذِي رَدْغٍ ، فَأَمَرَ الْمُؤَذِّنَ
لَمَّا بَلَغَ حَيَّ عَلَى الصَّلَاةِ ، قَالَ : قُلِ الصَّلَاةُ فِي الرِّحَالِ ، فَنَظَرَ بَعْضُهُمْ إِلَى بَعْضٍ فَكَأَنَّهُمْ أَنْكَرُوا ، فَقَالَ : كَأَنَّكُمْ أَنْكَرْتُمْ هَذَا ، إِنَّ هَذَا فَعَلَهُ مَنْ هُوَ خَيْرٌ مِنِّي يَعْنِي النَّبِيَّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ، إِنَّهَا عَزْمَةٌ وَإِنِّي كَرِهْتُ أَنْ أُحْرِجَكُمْ ، وَعَنْ حَمَّادٍ ، عَنْ عَاصِمٍ ، عَنْ عَبْدِ اللَّهِ بْنِ الْحَارِثِ ، عَنِ ابْنِ عَبَّاسٍ نَحْوَهُ ، غَيْرَ أَنَّهُ قَالَ : كَرِهْتُ أَنْ أُؤَثِّمَكُمْ ، فَتَجِيئُونَ تَدُوسُونَ الطِّينَ إِلَى رُكَبِكُمْ .
तर्जुमा: हमें एक दिन इब्ने-अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने जबकि बारिश की वजह से कीचड़ हो रही थी ख़ुतबा सुनाया। फिर मुअज़्ज़न को हुक्म दिया और जब वो ( حى على الصلاة ) पर पहुँचा तो आप ने फ़रमाया कि आज इस तरह पुकार दो الصلاة في الرحال कि नमाज़ अपनी क़ियाम रास्तों पर पढ़ लो। लोग एक-दूसरे को (ताज्जुब की वजह से) देखने लगे। जैसे उसको उन्होंने नाजायज़ समझा। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने फ़रमाया कि ऐसा मालूम होता है कि तुमने शायद उसको बुरा जाना है। ऐसा तो मुझसे बेहतर ज़ात यानी रसूलुल्लाह (सल्ल०) ने भी किया था। बेशक जुमा वाजिब है मगर मैंने ये पसन्द नहीं किया कि ( حى على الصلاة ) कह कर तुम्हें बाहर निकालूँ (और तकलीफ़ में मुब्तला करूँ) और हम्माद आसिम से वो अब्दुल्लाह-बिन-हारिस से वो इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से इसी तरह रिवायत करते हैं। अलबत्ता उन्होंने इतना और कहा कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने फ़रमाया कि मुझे अच्छा मालूम नहीं हुआ कि तुम्हें गुनहगार करूँ और तुम इस हालत में आओ कि तुम मिट्टी मैं घुटनों तक सन गए हो।
यह हदीस इस बात की दलील है कि अगर किसी उज़्र की वजह से मस्जिद में जुम’आ की नमाज़ ना क़ायम की जा सके तो बस्ती के लोग अपने-अपने घरों में नमाज़-ए-ज़ुह्र अदा कर सकते हैं। जैसा कि इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने लोगों को बारिश की वजह से घरों में नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया और इस अमल को नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सुन्नत क़रार दिया।
आजकल कोरोना वायरस की वजह से कुछ ख़लीजी ममालिक में मस्जिदों में जमात से नमाज़ नहीं होती, घरों में ही लोग नमाज़ अदा करते हैं। ऐसे में लोगों के सामने जुम’आ के दिन से मुताल्लिक़ मुख़्तलिफ़ क़िस्म के मसाइल हैं। उन्हें इख़्तिसार से बयान कर देता हूँ:
(1) बात तो यह है कि ख़लीजी ममालिक हों या और कोई मुल्क या शहर जहां मस्जिद में 5 वक्त और नमाज़-ए-जुम’आ पढ़ने से रोक दिया गया है, वहां के लोग जुम’आ के दिन अपने घरों में ज़ुह्र की नमाज़ अदा करेंगे। पूरे घर वाले मिलकर ज़ुह्र और दीगर फ़राइज़ अदा करें तो जमात का अज्र मिलेगा।
(2) यह कि मस्जिद में ज़वाल के बाद अज़ान भी दी जाएगी मगर उन मस्जिदों में जहां जुम’आ की नमाज़ होती थी और जिसमें जुम’आ की नमाज़ नहीं होती थी उसमें अज़ान नहीं दी जाएगी।
(3) बात यह कि जुम’आ के दिन ग़ुस्ल करना नमाज़-ए-जुम’आ के वास्ते मशरू था, इसलिए ज़ुह्र पढ़ने वालों के हक़ में ग़ुस्ल-ए-जुम’आ मशरू नहीं है, जैसा कि नमाज़-ए-जुम’आ न पढ़ने वाली औरतों के हक़ में मशरू नहीं है।
(4) बात यह कि जुम’आ के दिन कसरत से दरूद पढ़ना, सूरह कहफ़ की तिलावत करना और क़बूलियत की घड़ी में दुआ करना बड़ा अहम है। इसलिए तमाम लोगों को, चाहे औरत हो या मर्द, इन बातों का एहतिमाम करना चाहिए।
एक आख़िरी बात कहना चाहता हूँ कि मोमिनों का जुम’आ के दिन नमाज़-ए-जुम’आ से महरूम होने पर ग़मगीन होना फ़ितरी बात है मगर हमें अल्लाह की रहमत से मायूस नहीं होना चाहिए और ना ही किसी को नमाज़-ए-जुम’आ बंद होने पर कोसना चाहिए। बल्कि ऐसे मौक़े पर कसरत से तौबा और इस्तिग़फार करना चाहिए, त’अज़्ज़ुर (excuse) के साथ मुसलमानों की भलाई, मुल्की अमन-ओ-अमान और अपने दीन और ईमान की सलामती के लिए दुआ करना चाहिए। अल्लाह हम सबका हामी और नासिर हो और हमें हर क़िस्म की बीमारियों और ख़ौफ़ से अपनी पनाह में रखे। आमीन