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SAFAR SE LAUTNE KE AADAAB AUR AHKAAM

सफ़र से लौटने के आदाब और अहकाम

 

तहरीर: शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह

हिंदी मुतर्जिम: हसन फ़ुज़ैल 

 

जब हम किसी भी लंबे सफ़र से वापस आते हैं तो अहल-ओ-अयाल से मिलने की ख़ुशी तो याद रहती है मगर इस सिलसिले में कई सुन्नत-ए-नबवी भुलाए रहते हैं। हां, जब हज या उमरा से लौटते हैं तो चंद एक सुन्नत याद रहती हैं मगर उसमें भी इफ़रात-ओ-तफ़रीत के शिकार हो जाते हैं।

आइये सही हदीस की रोशनी में इख़्तिसार के साथ आपकी ख़िदमत में सफ़र से वापसी के आदाब बयान करता हूं ताकि सुन्नतों को ज़िंदा करें और इख़्तिसार से परहेज़ करें।

बुनियादी तौर पर यह ज़ेहन में रहे कि सफर में सउबतों और मुश्किलात का सामना होता है इसलिए रास्ता पुरअमन हो तभी आप सफर करें और सफर के वक्त शर से अल्लाह की पनाह और आसानी के लिए रब्बुल आलमीन से दुआ करें। अब्दुल्लाह बिन सरजिस रज़ि० बयान करते हैं:

 

وعن عبد الله بن سرجس  قال: كان رسول الله ﷺ إذا سافر يتعوذ من وعثاء السفر، وكآبة المنقلب، والحور بعد الكون، ودعوة المظلوم، وسوء المنظر في الأهل والمال. (رواه مسلم:1343)

 

तर्जुमा: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब सफ़र करते तो अल्लाह से पनाह मांगते सफ़र की मशक़्क़तों से और ग़मगीन होकर लौटने से और भलाई के बाद बुराई की तरफ़ लौटने से और अहल-ओ-अयाल में बुराई देखने से।

सफ़र की वजह से एक तरफ़ मुसाफ़िर को परेशानी लाहिक़ होती है तो दूसरी तरफ़ अहल-ओ-अयाल और उसके माल के लिए दिक़्क़त का सामना हो सकता है। इसीलिए शुरू सफ़र में ही रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इन सब चीज़ों में आफ़ियत के लिए दुआ करते थे।

इस बुनियादी बात को ज़हन में रखते हुए सफ़र से लौटने में सबसे पहला अदब यह है कि जिस मक़सद के लिए सफ़र था, उस मक़सद की तकमील के फ़ौरन बाद अहल-ओ-अयाल के पास लौट आया जाए, इसमें ताख़ीर न की जाए। हमारे प्यारे रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की यही सुन्नत रही है। चुनांचे अबू हुरैरह रज़ि० से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:

 

السفر قطعة من العذاب، يمنع أحدكم طعامه، وشرابه ونومه، فإذا قضى أحدكم نهمته من سفره، فليعجل إلى أهله.

 

तर्जुमा: सफ़र क्या है, गोया अज़ाब का एक टुकड़ा है। आदमी की नींद, खाने-पीने सब में रुकावट पैदा करता है। इस लिए जब मुसाफ़िर अपना काम पूरा कर ले तो उसे जल्दी घर वापस आ जाना चाहिए। (सहीह बुख़ारी: 3001)

सफ़र से लौटने का दूसरा आदाब यह है कि लौटते वक्त उसी तरह दुआ पढ़ें जैसे आपने सफ़र के शुरू में दुआ की थी, कुछ कलिमात के इज़ाफ़े के साथ। चुनांंचा आप सफ़र से लौटने की दुआ इस तरह पढ़ें 

 

اللَّهُ أَكْبَرُ ، اللَّهُ أَكْبَرُ ، اللَّهُ أَكْبَرُ . ثُمَّ يَقُولُ : سُبْحَانَ الَّذِي سَخَّرَ لَنَا هَذَا وَمَا كُنَّا لَهُ مُقْرِنِينَ وَإِنَّا إِلَى رَبِّنَا لَمُنْقَلِبُونَ سورة الزخرف آية 13 – 14 ، اللَّهُمَّ إِنِّي أَسْأَلُكَ فِي سَفَرِي هَذَا الْبِرَّ وَالتَّقْوَى ، وَمِنَ الْعَمَلِ مَا تَرْضَى ، اللَّهُمَّ هَوِّنْ عَلَيْنَا السَّفَرَ ، وَاطْوِ عَنَّا بُعْدَهُ ، اللَّهُمَّ أَنْتَ الصَّاحِبُ فِي السَّفَرِ ، وَالْخَلِيفَةُ فِي الأَهْلِ ، اللَّهُمَّ إِنِّي أَعُوذُ بِكَ مِنْ وَعْثَاءِ السَّفَرِ ، وَكَآبَةِ الْمُنْقَلَبِ فِي الْمَالِ وَالأَهْلِ ، آيِبُونَ تَائِبُونَ عَابِدُونَ وَلِرَبِّنَا حَامِدُونَ ” .

 

तर्जुमा: अल्लाह सब से बड़ा है, अल्लाह सब से बड़ा है, अल्लाह सब से बड़ा है। पाक है। वो ज़ात जिसने इस सवारी को हमारे मातहत कर दिया और हम इस पर क़ाबू नहीं पा सकते थे और हम अपने परवरदिगार के पास लौट जाने वाले हैं। ऐ अल्लाह! हम  तुझसे अपने इस सफ़र  में नेकी और परहेज़गारी माँगते हैं और ऐसे काम का सवाल करते हैं जिसे  तू पसन्द करे। ऐ 

अल्लाह! हम पर इस सफ़र को आसान कर दे और इसकी दूरी को हम पर थोड़ा कर दे। ऐ अल्लाह  तू ही सफ़र  में दोस्त सफ़र और घर  में निगराँ है। ऐ अल्लाह! मैं  तुझसे सफ़र की मुसीबतों और रंज और ग़म से और अपने माल और घर वालों  में बुरे हाल  में लौट कर आने से तेरी पनाह माँगता हूँ।(ज़ुख़रुफ़ 13-14) (ये तो जाते वक़्त पढ़ते) और जब लौट कर आते तो भी यही दुआ पढ़ते मगर इस  में इतना बढ़ा देते कि (आइबू-न, ताइबू-न, आइदू-न, आबिदू-न, लिरब्बि-न हामिदू-न) “हम लौटने वाले हैं, तौबा करने वाले, ख़ास अपने रब की इबादत करने वाले और उसी की तारीफ़ करने वाले हैं।” (सहीह मुस्लिम:1342)

सफ़र से लौटने का तीसरा अदब यह है कि रात को बिना इत्तिला दिए अहल ओ आयाल के पास न जाएँ। जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया:

 

إذا قدمَ أحدُكُمْ لَيْلًا ، فلا يأتيَنَّ أَهْلهُ طُرُوقًا ؛ حتى تَسْتَحِدَّ المُغِيبَه ، و تَمْتَشِطَ الشَّعِثَه

 

तर्जुमा: जब तुम में से कोई रात को आए तो अपने घर में घुसा न चले आए (बल्कि ठहरे) यहाँ तक कि पाकी करे वह औरत जिसका शौहर सफ़र में था और संवार ले वह औरत जिसके बाल परेशान हों। (सहीह मुस्लिम:715)

आज सोशल मीडिया के ज़माने में एक-एक लम्हे की ख़बर मुसाफ़िर और घर वालों के बीच होती है, इस लिहाज़ से किसी वक़्त घर पहुँचने में हरज नहीं है।

सफ़र से लौटने पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की एक सुन्नत यह भी रही है कि आप जब बस्ती में वापस लौटते, पहले अहल ओ आयाल के पास नहीं जाते, बल्कि मस्जिद जाते और वहां 2 रकात नमाज़ अदा करते। चुनांचे का’ब बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं:

 

كان عليه الصلاة والسلام إذا قدم من سفر بدأ بالمسجد فركع فيه ركعتين ثم جلس للناس

 

तर्जुमा: नबी ए अकरम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब सफर से आते तो पहले मस्जिद में जाते और उसमें 2 रकात नमाज़ पढ़ते, फिर लोगों से मुलाक़ात के लिए बैठते। (अबू दाऊद: 2773, सहीह अल्बानी)

सफ़र से लौटने पर घर और पड़ोस के बच्चों को पहले शिद्दत का इंतज़ार होता है। इस लिए मुसाफ़िर घर को लौटते तो इस्तक़बाल करने वाले बच्चों से प्यार और मोहब्बत जतलाएं, उन बच्चों में अपने और पड़ोस के भी हो सकते हैं, सब से यकसाँ मोहब्बत करें ताकि किसी को एहसास ए कमी न हो। इब्न अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने बयान किया:



لما قدم النبي صلى الله عليه وسلم مكة استقبلته أغيلمة بني عبد المطلب، فحمل واحدًا بين يديه، وآخرَ خلفه.

 

तर्जुमा: जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम मक्का मुकर्रमा तशरीफ लाए (फ़तह के मौक़े पर) तो अब्दुल मुत्तलिब की औलाद ने (जो मक्का में थी) आपका इस्तक़बाल किया। (यह सब बच्चे ही थे) आपने अज़-राह मोहब्बत एक बच्चे को अपने सामने और एक को अपने पीछे बिठा लिया। (सहीह बुख़ारी: 5965)

 

नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के प्यारे साथियों का तरीक़ा था कि जब वे एक दूसरे से मुलाक़ात फ़रमाते तो सलाम और मुसाफ़ा करते और जब सफ़र से लौट कर मिलते तो मु’आनक़ा करते। गोया लंबे सफ़र से लौटने की एक सुन्नत यह है कि मिलने वालों से मु’आनक़ा किया जाए। अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं:

 

كان أصحاب النبي صلى الله عليه وسلم إذا تلاقوا تصافحوا ، وإذا قدموا من سفر تعانقوا

 

तर्जुमा: नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के असहाब जब एक दूसरे से मुलाक़ात करते तो मुसाफ़ा करते और जब सफ़र से वापस आते तो मु’आनक़ा (गले मिलना) करते। (सहीह अत-तरग़ीब: 2719)

 

आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब गज़वा तबूक़ या ज़ातुर्रिक़ा से वापस हुए तो आपने एक जानवर ज़बह कर के सहाबा-ए-किराम को खिलाया था।

जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है:

 

ان رسول الله صلى الله عليه وسلم لما قدم المدينة نحر جزورا او بقرة.

 

तर्जुमा: नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जब मदीना तशरीफ़ लाए (गज़वा ताबूक़ या ज़ातुर्रिक़ा से) तो ऊंट या गाय ज़बह की। (सहीह बुख़ारी: 3089)

 

इस हदीस की रोशनी में अहले इल्म कहते हैं कि सफ़र से लौटने की एक सुन्नत यह है कि लोगों की दावत की जाए। चुनांचे इस हदीस पर इमाम बुख़ारी रहिमहुल्लाह ने इस तरह बाब बांधा है: “باب الطعام عند القدوم” यानी मुसाफ़िर जब सफ़र से लौट कर आए तो लोगों को खाना खिलाए (दावत करे)।

और इसी हदीस पर इमाम दावूद (3747) ने इस तरह बाब बांधा है: “باب الطعام عند القدومي من السفر” यानी सफ़र से आने पर खाना खिलाने का बयानइस लिए जो मुसाफ़िर दावत करने की इस्तिता’अत (ताक़त) रखता हो वह ग़ुलू और फ़िज़ूलख़र्ची से बचते हुए अपने क़रीबियों को दावत कर के खिला सकता है, लेकिन जिसे दावत खिलाने की ताक़त न हो वह दावत न करे। हालांकि एक दूसरे से उल्फ़त और मोहब्बत क़ाइम रखने और उसमें इज़ाफ़ा करने के सबब अपने क़रीबियों और मुलाक़ातियों को मामूली गिफ़्ट पेश कर सके तो अच्छी बात है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फ़रमान है: تهادوا تهابوا.

 

तर्जुमा: एक दूसरे को हदिया दिया करो क्योंकि इसमें आपस में मोहब्बत में इज़ाफ़ा होता है। (सहीह अदबुल मुफ़रद:462)

 

हदिया में कोई भारी भरकम चीज़ देना ज़रूरी नहीं है, घर के बच्चों के लिए कुछ टौफ़ीयाँ सही, खजूर का एक दाना सही और हज और उमरा से लौट रहे हैं तो ज़मज़म का एक घूंट पानी ही पेश कर दें। मुलाक़ात करने वाला हज या उमरा से लौटने वाले के इबादत की क़बूलियत की दुआ दे।

आख़िर में हज और उमराह से लोटने वाले ख़ुश नसीबों से अर्ज़ करना चाहता हूँ कि आपको अल्लाह ने अज़ीम इबादत की सआदत बख़्शी है, अपनी आँखों से अल्लाह के घर का दीदार और उसका तवाफ़ कर के आए हैं। इस वक्त आपको इस बात की ज़रूरत है कि शुक्रे इलाही के साथ अल्लाह से बकस्रत यह 

दुआ करें कि ऐ अल्लाह! मेरा हज और उमरा को क़बूल फ़रमा। नीज़ हज-ए-मबरूर से सारे गुनाह माफ़ हो जाते हैं जैसे कोई माँ के पेट से पैदा हुआ हो। इसलिए कोशिश करें कि इसी हालत पर मौत आए यानी गुनाहों से धुले धुलाए। इसके लिए आपको क्या करना है?

(1) सफ़र ए हज और उमरा से वापसी पर मुरव्वजा ख़ुराफ़ात और फ़िज़ूल कामों से बचें जैसे घरों की ताज़ियात और ज़ेबाइश (सजावट), भारी भरकम इसराफ़ (ख़र्च करना) और रिया वाली दावत वग़ैरह।

(2) हर उस काम से बचें जिस ने शोहरत और नामवरी हो ताकि आपकी इबादत की हिफ़ाज़त हो, वर्ना शोहरत ए हज जैसी इबादत को खा लेगी यहाँ तक कि यह जहन्नम में दाख़िल होने का सबब बन सकती है।

(3) जैसे हज या उमराह आपने ख़ालिस अल्लाह के लिए अंजाम दिया, मताफ़, सई, मिना, अरफ़ात, मुज़दल्फ़ा हर जगह उसी से दुआ मांगी, उसी को मक्का मदीना में पुकारा, सारी ज़िन्दगी इसी तरह ख़ालिस अब रब की बंदगी बजा लाएँ, उसके साथ किसी को शरीक न करें और उसी से मांगते रहें, इन शा अल्लाह तौहीद पर ख़ात्मा नसीब होगा और आपका हज क़यामत में काम आएगा। याद रहे, शिर्क सारे आमाल को तबाह कर देता है।

(4) आख़िरी बात यह है कि अब अपने को एक बेहतर इंसान की सूरत में बदल कर ज़िन्दगी गुज़ारे जैसे मालूम हो कि वाक़ई हज और उमरे ने आपको बदल दिया है या हज और उमरे के बाद अब एक अच्छे इंसान बन गए हैं। अल्लाह भी यही चाहता है। आप नेकी की तरफ़ लग गए हैं तो इस जानिब बढ़ते रहें और इसी पर क़ाइम रहें और अल्लाह से हमेशा साबित क़दमी की यह दुआ “يا مقلب القلوب ثبت قلبى على دينك.” करते रहें।

अनस रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं:

 

كان رسول الله صلى الله عليه يكثر ان يقول:يا مقلب القلوب ثبت قلبى على دينك.

 

तर्जुमा: रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अक्सर यह दुआ पढ़ते थे

 

«يا مقلب القلوب ثبت قلبى على دينك.»

 

तर्जुमा: ऐ दिलों के उलटने पलटने वाले मेरे दिल को अपने दीन पर साबित क़दम रख। (सहीह तिर्मिज़ी:2140)

 

 

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