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KYA MAYYAT KO GHUSL DENE WALA GHUSL KAREGA YA WUZU KAAFI HAI?

क्या मय्यत को ग़ुस्ल देने वाला ग़ुस्ल करेगा या वुज़ू काफ़ी है?

 

तहरीर:शैख़ मक़बूल अहमद सलफ़ी हाफ़िज़ाहुल्लाह

हिंदी मुतर्जिम: हसन फ़ुज़ैल 

 

 

मय्यत को ग़ुस्ल देने वाले से मुताल्लिक़ लोगों में 3 बातें हैं:

(1) वह ग़ुस्ल करे

(2) वह वुज़ू करे

(3) अगर वह पहले से वुज़ू कर चुका है तो सिर्फ़ हाथ धो ले

 

जो लोग मय्यत को ग़ुस्ल देने वालों के लिए ग़ुस्ल के वाजिब होने के क़ाइल हैं, उनकी दलील यह हदीस है। नबी ﷺ का फ़रमान है:

 

مَنْ غَسَّلَ الْمَيِّتَ فَلْيَغْتَسِلْ، وَمَنْ حَمَلَهُ فَلْيَتَوَضَّأْ​

 

तर्जुमा: जो शख़्स किसी मय्यत को नहलाए, ग़ुस्ल घुसल करे और जो उसे उठाए, वह वुज़ू करे।

(अबू दाऊद: 3161)

 

इसके अलावा एक और दलील मिलती है:

 

عَنْ عَائِشَةَ أَنَّهَا حَدَّثَتْهُ أَنَّ النَّبِيَّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ كَانَ يَغْتَسِلُ مِنْ أَرْبَعٍ : مِنَ الْجَنَابَةِ، وَيَوْمَ الْجُمُعَةِ، وَمِنَ الْحِجَامَةِ، وَغُسْلِ الْمَيِّتِ​

 

तर्जुमा: उम्मुल मोमिनीन आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने बयान किया कि नबी ﷺ चार चीज़ों से ग़ुस्ल किया करते थे: जनाबत 

 

से, जुमे के दिन, हिजामा करवाने के बाद और मय्यत को ग़ुस्ल देने के बाद।

(अबू दाऊद: 3160। इस हदीस को अल्लामा अल्बानी रहिमहुल्लाह ने ज़ईफ क़रार दिया है)

अज़ीम आबादी साहब ने भी इसे ज़ईफ क़रार दिया है।

(औनुल माबूद: 8/243)

 

तो यह रिवायत ज़ईफ है इससे दलील नहीं पकड़ी जा सकती। रही बात उपर वाली पहली रिवायत की, तो वह रिवायत ज़ाहिरी तौर पर वाजिब होने का तक़ाज़ा कर रही है, मगर सही आसार से पता चलता है कि यहाँ वाजिब होने का इस्तिदलाल करना सही नहीं है।

 

पहला असर:

 

ليس عليكم في غسل ميتكم غسل إذا غسلتموه فإن ميتكم ليس بنجس فحسبكم ان تغسلوا ايديكم

तर्जुमा: इब्न ए अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं कि मय्यत को ग़ुस्ल देने से तुम्हारे लिए ग़ुस्ल करना वाजिब नहीं है जब तक तुम उसे ग़ुस्ल दो क्योंकि तुम्हारा मय्यत नजिस (नापाक) नहीं होता तो तुम्हारा हाथ धो लेना ही काफ़ी है।

(सहीह उल जामी: 5408)

 

इमाम हाकिम, इमाम ज़हबी और अल्लामा अल्बानी रहिमहुल्लाह ने इसे सही क़रार दिया है और हाफिज़ इब्न ए 

 

हजर रहिमहुल्लाह ने हसन कहा है।

 

दूसरा असर:

 

عن ابن عمر كنا نغسل الميت فمنا من يغتسل ومنا من لا يغتسل

तर्जुमा: इब्न ए उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि हम लोग मय्यत को ग़ुस्ल देते थे, तो हम में से कुछ लोग ग़ुस्ल करते और कुछ ग़ुस्ल नहीं करते।

इस असर को अल्बानी रहिमहुल्लाह ने सही क़रार दिया है।

(अहकामुल जनाइज़: 72)

 

तीसरा असर:

इसी तरह असमा बिंत-ए-उमैस रज़ियल्लाहु अन्हा वाले असर से भी दलील मिलती है। जब उन्होंने अपने शौहर अबू बक्र सिद्धीक़ रज़ियल्लाहु अन्हु को उनकी वफ़ात पर ग़ुस्ल दिया, तो उन्होंने मुहाजिरीन से पूछा कि सख़्त सर्दी है और मैं रोज़े से हूँ, क्या मुझे ग़ुस्ल करना पड़ेगा, तो सहाबा ने जवाब दिया कि नहीं।

(मुसन्नफ़ इब्न ए अबी शैबा: 6123, मुअत्ता इमाम मालिक: 521)

 

इन आसार को सामने रखते हुए यह साबित होता है कि मय्यत को ग़ुस्ल देने वाले के लिए ग़ुस्ल करना मुस्तहब है, अगर वह ग़ुस्ल न करे तो कोई हरज नहीं। यही मौक़िफ़ मुबारकपुरी रहिमहुल्लाह का है और उन्होंने तोहफ़ा उल एहवज़ी में इमाम शौकानी रहिमहुल्लाह से भी इसी मौक़िफ़ को नक़ल किया है, 

 

जो सारे दलील में जमा और ततबीक़ की सूरत है।

अलबत्ता वुज़ू के मुताल्लिक शैख़ इब्न ए बाज़ रहिमहुल्लाह ने ज़िक्र किया है कि मय्यत को ग़ुस्ल देने वाला वुज़ू ज़रूर करे, यह तमाम अहल ए इल्म का मौक़िफ़ है। यह वुज़ू नमाज़ ए जनाज़ा के लिए है जैसा कि हर नमाज़ के लिए करते हैं, बग़ैर वुज़ू के कोई नमाज़ नहीं होगी:

 

لا صلاةَ لمَن لا وُضوءَ لهُ

 

तर्जुमा: उसकी नमाज़ नहीं जिसकी वुज़ू नहीं है।

(सहीह उत तर्ग़ीब: 203)

 

अगर मय्यत को ग़ुस्ल देने वाला पहले से वुज़ू किया हुआ है और उसका हाथ मय्यत की शर्मगाह को लग गया, तो फिर वुज़ू करना वाजिब होगा क्योंकि शर्मगाह को हाथ लगाने से वुज़ू टूट जाता है। लेकिन अगर मय्यत की शर्मगाह को हाथ न लगे (और ग़ुस्ल देने में यही तरीक़ा अपनाए कि हाथ पर दस्ताना लगा ले और फिर मय्यत की गंदगी साफ़ करे) तो उसे वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है लेकिन कम से कम हाथ धोना ज़रूरी है जैसा कि ऊपर सहीह उल जामे वाली रिवायत में ज़िक्र है।

 

मज़ीद चंद अहकाम व मसाइल:

 

अफ़ज़ल अमल: ग़ुस्ल देने वाले के हक़ में अफ़ज़ल यह है कि वह ग़ुस्ल कर ले ताकि इस्तिहबाब पर अमल भी हो जाए और मय्यत को ग़ुस्ल देने, उसे बार-बार देखने और हरकत देने से ज़ेहन में जो फितूर पैदा हो गया है वह दूर हो जाए और ताज़गी 

 

और नशीता हो जाए।

 

एहतियाती अमल: अगर ग़ुस्ल न कर सकें तो कम से कम वुज़ू कर लें, हालांकि उन्होंने पहले वुज़ू किया हुआ हो। अगर पहले वुज़ू नहीं किया तो नमाज़ ए जनाज़ा के लिए वुज़ू तो हर हाल में करना है।

जिसने मय्यत को ग़ुस्ल दिया है, उसे अपना कपड़ा उतारने या साफ़ करने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि जब उसे अपना बदन धोना ज़रूरी नहीं तो कपड़ा धोना तो और भी ज़रूरी नहीं होगा।

जनाज़े की नमाज़ के लिए किए गए वुज़ू से दूसरे वक्त की नमाज़ पढ़ सकता है क्योंकि इस वुज़ू और दूसरी नमाज़ के वुज़ू में कोई फ़र्क़ नहीं है।

यह क़ौल “ومن حمله فليتوضأ” (जो मय्यत को उठाए वह वुज़ू करे) इसका मतलब यह नहीं है कि जो मय्यत को कंधा दे वह सब वुज़ू करें। इसका मतलब यह है कि जो मय्यत को हरकत दे, इधर से उधर उठाकर रखे, एक चादर से दूसरी चादर पर ले जाए, वह वुज़ू करे। और इसमें जो वुज़ू का ज़िक्र है वह नमाज़ ए जनाज़ा के लिए वुज़ू करना है।

 

 

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