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AURTON KE LIYE AZAAN AUR IQAAMAT KA HUKM

औरतो के लिए अज़ान और इक़ामत का हुक्म 

 

नमाज़ में अज़ान व इक़ामत सिर्फ़ मर्दों के हक़ में मशरू है क्योंकि मर्दों पर जमात के साथ नमाज़ पढ़ना वाजिब है जबकि औरतों की नमाज़ अपने घर में अदा करना बेहतर है। यह अलग मसला है कि औरत अगर मर्दों के साथ जमात से नमाज़ पढ़ना चाहे तो पढ़ सकती है, शरियत ने इजाज़त दी है। 

 

जब औरत को अकेले घर में नमाज़ पढ़ना है तो अज़ान की ज़रूरत ही नहीं और न ही इक़ामत की, जैसे ही किसी नमाज़ का वक़्त हो जाए बिना अज़ान का इंतज़ार किए अपनी नमाज़ इंफ्रादी तौर पर पढ़ सकती है, बख़िलाफ़ मर्दों के कि उनके लिए अज़ान मशरू है, पहले अज़ान दे फिर इक़ामत कहकर जमात से नमाज़ अदा करे। आगे इस बात की दलील भी ज़िक्र की जाएगी। 

 

अज़ान दूसरों को नमाज़ की इत्तिला देने और मस्जिद में हाज़िर होने के लिए दी जाती है और इक़ामत भी नमाज़ की जमात खड़ी होने की इत्तिला देने के लिए है। यहाँ यह मसला भी वाज़ेह रहे कि मर्दों के हक़ में भी अज़ान व इक़ामत फ़क़त मशरू है, यानी अगर किसी ने बिना अज़ान के नमाज़ अदा कर लिया या किसी ने बिना इक़ामत के नमाज़ पढ़ लिया तो नमाज़ अपनी जगह सही है, इसे दोहराने की ज़रूरत नहीं है। हालांकि क़सदन (जानबूझकर) अज़ान या इक़ामत छोड़ कर नमाज़ नहीं अदा 

करना है।

 

हाँ, एक मसला यह भी है कि अगर कई औरतें मिलकर जमात से फ़र्ज़ नमाज़ अदा करें, तो इस सूरत में उनके हक़ में अज़ान व इक़ामत का क्या हुक्म है? मसलन, एक निसवाँ इदारा है जहाँ पाँच वक़्त की औरतों की जमात होती है, तो उस जगह औरतों को हर नमाज़ के लिए अज़ान देनी चाहिए और जमात खड़ी होने से पहले इक़ामत कहनी चाहिए या नहीं?

 

नमाज़ का मामला तौक़ीफ़ी है, हमें इस सिलसिले में अपने मन से कुछ नहीं कहना है और न ही लोगों के क़ौल या ज़ईफ़ और मौज़ू हदीसों से इस्तिदलाल किया जाएगा। जब हम औरतों की नमाज़ और उनकी जमात के सिलसिले में सही हदीसें तलाश करते हैं, तो यह सबूत ज़रूर मिलता है कि एक औरत दूसरी औरतों की जमात करा सकती है, चाहे फ़र्ज़ नमाज़ हो या नफ़्ल नमाज़। लेकिन औरतों के हक़ में अज़ान व इक़ामत की कोई सही मर्फ़ू हदीस नहीं मिलती है। हालांकि सही दलीलों से इस बात का इशारा ज़रूर मिलता है कि औरतों के हक़ में अज़ान व इक़ामत नहीं है। सय्यदा उम्मे वर्क़ा बिन्त अब्दुल्लाह बिन हारिस से रिवायत है:

 

كانَ رسولُ اللَّهِ صلَّى اللَّهُ علَيهِ وسلَّمَ يَزورُها في بَيتِها ، وجعلَ لَها مؤذِّنًا يؤذِّنُ لَها ، وأمرَها أن تؤمَّ أهلَ دارِها(صحيح أبي داود:592)

 

तर्जमा: रसूल अल्लाह ﷺ उनके घर में मिलने के लिए आया 

 

करते थे और उनके लिए एक मुअज़्ज़िन मुक़र्रर किया था जो उनके लिए अज़ान देता था और आपने उन्हें (उम्मे वर्क़ा को) हुक्म दिया था कि अपने घर वालों की इमामत करें।

 

इस हदीस से पता चलता है कि अगर औरतों का अज़ान देना मशरू होता तो आप ﷺ उम्मे वर्क़ा और उनके घर की औरतों के लिए मर्द मुअज़्ज़िन का इंतिख़ाब नहीं करते बल्कि उन्ही में से किसी एक औरत को या उम्मे वर्क़ा को अज़ान देने पर मामूर करते, मगर आप ﷺ ने ऐसा नहीं किया।

 

इसी तरह सय्यदना मालिक बिन हुवेरिस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, उन्होंने फ़रमाया:

 

أتيتُ النَّبيَّ صلَّى اللَّهُ عليهِ وسلَّمَ أنا وصاحِبٌ لي فلمَّا أردنا الانصرافَ قالَ لنا إذا حضرَتِ الصَّلاةُ فأذِّنا وأقيما وليؤمَّكما أَكبرُكُما(صحيح ابن ماجه:806)

 

तर्जमा: मैं और मेरा एक साथी नबी ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुए। जब हमने वापस (वतन) जाने का इरादा किया तो आप ﷺ ने हमसे फ़रमाया: जब नमाज़ का वक़्त हो जाए तो तुम लोग अज़ान और इक़ामत कहना और तुम्हारा इमाम वह बने जो तुम दोनों में से ज़्यादा बड़ा है।

 

इस हदीस में जिस तरह नबी ﷺ ने मर्दों को मुख़ातिब होकर अज़ान व इक़ामत और जमात का हुक्म दिया है, उस तरह किसी मर्फ़ू हदीस से औरतों के हक़ में अज़ान व इक़ामत का 

 

सबूत नहीं मिलता है। हालांकि यह असर “ليس على النِّساءِ أذانٌ ولا إقامةٌ” कि औरतों पर अज़ान व इक़ामत नहीं है, साबित नहीं है।

 

इस मसले में बाज़ उलमा ने औरतों के हक़ में अज़ान व इक़ामत दोनों और बाअज़ ने सिर्फ़ इक़ामत को मुबाह कहा है और इस्तिदलाल के तौर पर नबी ﷺ का यह एक फ़रमान पेश किया जाता है:

 

إنَّما النِّساءُ شقائقُ الرِّجالِ(صحيح أبي داود:236)

 

तर्जमा: हाँ! औरतें (भी) बेशक मर्दों ही की मानिंद हैं।

 

बेशक औरतें भी मर्दों की मानिंद हैं मगर तमाम चीज़ों में नहीं, जैसा कि हम उनकी फ़ितरत, जिन्स और ख़ल्क़त मर्दों से मुख़्तलिफ़ पाते हैं। जिस हदीस में औरतों को मर्दों की मानिंद क़रार दिया गया है, वहां मसला एहतिलाम का है कि एहतिलाम हो जाने पर मर्दों की तरह औरतों पर भी ग़ुस्ल है।

ख़ुलासा कलाम यह हुआ कि औरतों के हक़ में अज़ान व इक़ामत मशरू नहीं है।

वल्लाहु आलम

 

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